18 घंटे तक रोजाना अंधेरा झेल चुके नेपाल में अब वही इंजीनियर सत्ता के केंद्र में है, जिसने उस अंधेरे को खत्म किया था। कुलमान घिसिंग अंतरिम प्रधानमंत्री के लिए सबसे आगे माने जा रहे हैं। यह उभार उन हिंसक विरोध प्रदर्शनों के बाद दिखा है जिनमें 30 लोगों की मौत हुई और भारी दबाव में 9 सितंबर 2025 को प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली को पद छोड़ना पड़ा।
यह आंदोलन सोशल मीडिया बैन से भड़का था, मगर कुछ ही दिनों में बेरोजगारी, महंगाई और खासकर भ्रष्टाचार के खिलाफ बड़े जनविरोध में बदल गया। सड़कों पर सबसे ज्यादा वही युवा थे जो कॉलेज में पढ़ रहे हैं या पहले रोजगार की तलाश में हैं। देशभर में कर्फ्यू और धारा 144 जैसे प्रतिबंध लगे, इंटरनेट पर रुक-रुककर बंदिशें लगीं और राजधानी से जिलों तक पुलिस और सेना की तैनाती बढ़ाई गई।
इसी उथल-पुथल के बीच अंतरिम व्यवस्था को लेकर अलग-अलग पक्षों की बैठकों का दौर चला। प्रदर्शनकारियों के प्रतिनिधियों की मुलाकातें राष्ट्रपति रामचंद्र पौडेल से हुईं। सेना प्रमुख अशोक राज सिग्देल की मौजूदगी में सेना मुख्यालय में भी परामर्श हुआ ताकि कानून-व्यवस्था काबू में रहे और राजनीतिक प्रक्रिया अटके नहीं। यह साफ संदेश था कि सत्ता संक्रमण में सड़क, सियासत और सुरक्षा—तीनों एक साथ चलेंगे।
घिसिंग के नाम पर सहमति क्यों बन रही है, जवाब सरल है। सितंबर 2016 में जब वह नेपाल इलेक्ट्रिसिटी अथॉरिटी के प्रबंध निदेशक बने, तब देश 17 से 18 घंटे की रोजाना लोडशेडिंग झेल रहा था। कुछ महीनों में स्मार्ट डिस्ट्रीब्यूशन, आपूर्ति की प्राथमिकता तय करने और संसाधनों के सख्त उपयोग से उन्होंने ब्लैकआउट खत्म कर दिए। बिजली कंपनी को घाटे से निकालकर लाभ में लाया। यह एक ठोस, मापने लायक काम था जो लोगों की रोज की जिंदगी बदलता था—यही उनकी सबसे बड़ी राजनीतिक पूंजी है, भले वह पेशे से राजनेता न हों।
यही वजह है कि युवाओं को घिसिंग में नीति और नीयत दोनों का भरोसा दिखता है। वह राजनीतिक दलों से दूरी रखते हैं, तय लक्ष्य पर काम करते हैं और सार्वजनिक छवि साफ-सुथरी बनी हुई है। मार्च 2025 में सरकार ने उन्हें हटाने की कोशिश की थी तो हजारों लोग सड़कों पर उतर आए थे। यह दृश्य इस बार के विरोध प्रदर्शनों में और बड़ा होकर सामने आया।
दिलचस्प यह भी है कि शुरुआती दौर में जिनके नाम पर चर्चा सबसे आगे थी, वह थीं पूर्व मुख्य न्यायाधीश सुषिला कार्की। कार्की भ्रष्टाचार पर कड़ी रुख वाली छवि के साथ सामने आईं और नेपाल-भारत रिश्तों को मजबूत करने पर जोर देती दिखीं। काठमांडू के मेयर बालेन शाह ने भी कार्की का समर्थन किया। लेकिन जेन Z की धारा तेजी से घिसिंग की तरफ मुड़ी, उन्हें एक ऐसे देशभक्त और कामयाब प्रशासक के रूप में पेश करते हुए जो सबको स्वीकार्य हैं।
घिसिंग ने सार्वजनिक रूप से यह विचार रखा है कि अंतरिम सरकार में बेदाग साख वाले लोग हों, जेनरेशन Z को हिस्सेदारी मिले और तुरंत चुनाव की तारीखें तय की जाएं। उनके फोकस में सिस्टम की सफाई और संस्थाओं की कार्यकुशलता बढ़ाना है। इंजीनियरिंग के बैकग्राउंड ने उन्हें समस्या को तकनीकी तरीके से हल करने की आदत दी है—लक्ष्य, डेटा, और समयसीमा।
अगर घिसिंग अंतरिम सरकार का नेतृत्व करते हैं तो पहली चुनौती सड़कों का गुस्सा शांत करना होगी। यह सिर्फ कर्फ्यू से नहीं होगा। सोशल मीडिया बैन की समीक्षा करनी होगी, पारदर्शी जांच से मौतों और हिंसा की जवाबदेही तय करनी होगी और हिरासत में लिए गए निर्दोष लोगों की रिहाई जैसे भरोसा बहाल करने वाले कदम सामने रखने होंगे।
अर्थव्यवस्था पर असर पहले से दिख रहा है। कर्फ्यू और इंटरनेट बंदिशों से छोटे दुकानदार, टूर ऑपरेटर, ट्रांसपोर्ट और ऑनलाइन सेवाएं सबसे ज्यादा प्रभावित हुईं। नेपाल की खपत और निवेश, दोनों ही भरोसे पर टिके हैं। इसलिए अंतरिम सरकार को शुरुआती 100 दिनों में यह संकेत देना होगा कि नीति स्थिर रहेगी, अनुबंध सुरक्षित रहेंगे और फाइनेंसिंग खुली रहेगी।
ऊर्जा क्षेत्र में घिसिंग का ट्रैक रिकॉर्ड उनका प्लस है। हाइड्रो परियोजनाओं की पाइपलाइन पर काम की गति, वितरण में लीकेज कम करना, और क्रॉस-बॉर्डर बिजली व्यापार की पारदर्शी व्यवस्था—इन सब पर निरंतरता जरूरी होगी। नेपाल ने पिछले कुछ सालों में बिजली खरीद-फरोख्त में जो भरोसा कमाया है, उसे राजनीतिक अस्थिरता से नुकसान न हो, यह एक अहम कसौटी रहेगी।
पड़ोसी समीकरण भी इस दौर में संवेदनशील होंगे। नेपाल-भारत रिश्तों का एक बड़ा आयाम ऊर्जा, सीमा पार व्यापार और लोगों की आवागमन से जुड़ा है। कार्की भारत के साथ नजदीकी पर जोर देती दिखीं, जबकि घिसिंग को लोग नीतिगत रूप से व्यावहारिक मानते हैं। तकनीकी नेतृत्व अक्सर भू-राजनीति से दूरी रखता है, लेकिन फैसलों का असर सीमापार होता ही है—यहीं संतुलन साधना होगा।
संवैधानिक प्रक्रिया साफ कहती है कि राष्ट्रपति राजनीतिक सहमति के आधार पर अंतरिम नेतृत्व तय करें। सेना की भूमिका कानून-व्यवस्था तक सीमित रहे, यह लोकतांत्रिक भरोसे के लिए जरूरी है। एक समयबद्ध, सीमित कार्यादेश वाली सरकार—जिसका मुख्य लक्ष्य चुनाव कराना और बुनियादी प्रशासन संभालना हो—इस वक्त सबसे स्वीकार्य फार्मूला बन सकता है।
खतरे भी छोटे नहीं हैं। अगर इंटरनेट और सार्वजनिक आजादी पर लंबे समय तक बंदिशें बनी रहीं तो आक्रोश लौट सकता है। प्रदर्शनकारियों के बीच बिखराव और राजनीतिक दलों का टकराव रोडमैप को धीमा करेगा। और अगर पुराने ढर्रे की पुराने चेहरे वापस हावी हुए तो जेन Z का भरोसा टूटेगा।
युवा आबादी की मांगें बिल्कुल ठोस हैं—साफ शासन, नौकरी और डिजिटल आजादी। एक व्यावहारिक रास्ता यह हो सकता है कि अंतरिम सरकार युवाओं के साथ एक औपचारिक काउंसिल बनाए जो नीति पर सलाह दे, प्रगति का सार्वजनिक स्कोरकार्ड जारी करे और 100 दिन में 10 नतीजे तय करे। जो वादे हों, उनके लिए तारीख और मीट्रिक भी हो।
अगले 72 घंटे अहम होंगे। क्या सहमति बनती है, किन नामों पर मंत्रिपरिषद की रूपरेखा बनती है, क्या कर्फ्यू ढीला होता है, क्या सोशल मीडिया बैन पर स्पष्ट घोषणा आती है—इन संकेतों से तय होगा कि संकट सुलझने की तरफ है या लंबा खिंचने वाला है।
अगर किसी वजह से घिसिंग पीछे हटते हैं या राजनीतिक सहमति नहीं बनती तो फिर सुषिला कार्की का नाम या किसी और गैर-राजनीतिक चेहरों का पैनल मॉडल वापस केंद्र में आ सकता है। काठमांडू के मेयर बालेन शाह भले खुद दौड़ में न दिखें, लेकिन राजधानी की नब्ज समझने वाले नेता के तौर पर उनका समर्थन किसी भी फॉर्मूले के लिए वजनदार रहेगा।
फिलहाल संदेश साफ है—नेपाल का नया जनादेश सियासी भाषणों से ज्यादा नतीजों पर टिका है। और उसी तराजू पर तकनीकी दक्षता, साफ साख और तेज फैसले लेने की क्षमता रखने वाले चेहरों का पलड़ा भारी दिख रहा है।